मेरी सांसों में यही दहशत समाई रहती है
मज़हब से कौमें बà¤à¤Ÿà¥€ तो वतन का कà¥à¤¯à¤¾ होगा।
यूठही खिंचती रही दीवार ग़र दरमà¥à¤¯à¤¾à¤¨ दिल के
तो सोचो हशà¥à¤° कà¥à¤¯à¤¾ कल घर के आà¤à¤—न का होगा।
जिस जगह की बà¥à¤¨à¤¿à¤¯à¤¾à¤¦ बशर की लाश पर ठहरे
वो कà¥à¤› à¤à¥€ हो लेकिन ख़à¥à¤¦à¤¾ का घर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर कौ़में बनाने वालों सà¥à¤¨ लो तà¥à¤®
काम कोई दूसरा इससे ज़हाठमें बदतर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर दंगे, सियासत के हà¥à¤•à¥à¤® पे फितन
यूठही चलते रहे तो सोचो, ज़रा अमन का कà¥à¤¯à¤¾ होगा।
अहले-वतन शोलों के हाथों दामन न अपना दो
दामन रेशमी है “दीपक” फिर दामन का कà¥à¤¯à¤¾ होगा।